Sej gagan me chaand kee - 1 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | सेज गगन में चांद की - 1

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सेज गगन में चांद की - 1

सेज गगन में चाँद की [ 1 ]

"धरा ... ओ धरा... बेटी धरा...." माँ ने गले की तलहटी से जैसे पूरा ज़ोर लगा कर बेटी को आवाज़ लगाई।सपाट सा चेहरा लिए धरा सामने आ खड़ी हुई।बेटी के चेहरे पर अबूझा डोल देख कर बुढ़िया मानो फिर टिटियाई- "रोटी.... रोटी की कह रही थी मैं। धरा मानो कुछ समझी ही नहीं, वह अपनी माँ को उसी तरह घूरती हुई जस की तस खड़ी रही। उसकी माँ को सभी भक्तन माँ कहते थे। सभी से सुन-सुन कर कभी-कभी वह भी भक्तन माँ ही बोल बैठती थी। भक्तन ने अबकी बार अपने सुर में थोड़ी रिरियाहट घोली , बोली- " क्या बात है धरा ? ... ऐसे क्या देख रही है ...रोटी नहीं बनी क्या अभी? तेरी तबियत तो ठीक है? ये शक्ल कैसी बना रखी है तूने ? अबकी बार भक्तन माँ ने कई सवालों के फंदे से डाल दिए। धरा को सपाट से चेहरे से सामने खड़ी देख कर माँ कुछ समझ नहीं पाई थी, इसी से एहतियातन सभी तरह के सुर पिरो कर अपनी टेर उसके गले में किसी ताबीज़ की तरह टाँगने की कोशिश की माँ ने।अबकी बार उबलते दूध की तरह धरा का बोल फूटा, झल्ला कर बोली-" कमाल करती हो अम्मा,सुबह तुमने खुद नहीं कहा था कि आज उपवास धरोगी। खाना नहीं खाओगी। सुबह तो चाय का गिलास भी नज़रों से ही सिराए दे रही थीं , अब रोटी-रोटी की रट लगा रही हो।धरा की इस अप्रत्याशित शब्द-बौछार से भक्तन माँ के झुर्रीदार चेहरे पर खिसियाहट चिपक गयी। उनकी मिची सी आँखें ऐसी लजाईं, ऐसी लजाईं कि क्या सीता माता की लजाई होंगी धरती फटने की गुहार लगाते वक़्त। -"हाय मेरा सत्यानाश हो,मेरे पेट में पत्थर पड़ें ..." और न जाने क्या-क्या कहती भक्तन, कि पैर पटकती धरा भीतर चली गयी। जाते-जाते धरा ने चुनरी की कोर को होठों में भींच कर अपनी हंसी जो सिकोड़ी, बुढ़िया की मोतियाबिंद वाली आँख में भी छौंक सा लग गया। धरा तो चली गयी पर भक्तन का बड़बड़ाना जारी रहा।एकाएक ज़मीन पर हाथ टेक कर लंगड़ाती सी भक्तन उठी और ठाकुरजी के आले के करीब जाकर वहां रखी मूर्ति को शीश नवाया फिर मोरी पर जाकर पानी की टंकी से हाथ में जल ले-लेकर कुल्ले करने लगी। वहां से पलटी तो देखा- धरा रसोई के सामने बैठ थाली से पहला कौर लेकर मुंह में डाल चुकी थी।शायद गट्टे में मिर्च ज्यादा हो गयी थी, पहले ही कौर का धसका लगा और धरा खांसने लगी। फिर थाली छोड़ लपक कर पानी का लोटा लेने दौड़ी। बुढ़िया तेज़ चाल से चलती आले के ठाकुर के सामने खुद को ठेल ले गयी और अगरबत्ती की राख को अँगुलियों से समेट -समेट कर अगरबत्ती-दान साफ़ करने लगी। ऐसी भयभीत सी हाथ चला रही थी मानो एक दिन में दूसरी बार चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ ली गयी हो। पहले धरा से रोटी मांग कर, फिर धरा को स्वाद से खाते देखकर ....खाल सी खिंचने लगी भक्तन की।
खाना खाकर धरा ने छोटी वाली छत पर चटाई बिछाई और सुई-धागा खोजती हुई आले में झांक ही रही थी कि नीचे से फिर वही आवाज़ सुनाई दी। आज न जाने उसे क्या हुआ , दौड़ती हुई मुंडेर से लग कर नीचे झाँकने लगी। वही था। कंधे पर बड़ा सा खाली बोरा डाले ऊपर ही देख रहा था। धरा से आँखें चार होते ही झेंप गया।धरा ने भी इधर-उधर देखा, फिर मुंडेर पर ही सट कर खड़ी हो गयी। एक-दो पल उसने भी उधर देखा, फिर मायूसी और धीमी रफ़्तार से जाने के लिए आगे बढ़ने लगा। धरा को न जाने क्या सूझी, उसे पीछे से आवाज़ दे डाली। -"ऐ ... सुनो !"पलट कर पीछे देखते-देखते उसकी आँखें किसी अविश्वास से फडफ़ड़ाईं , और अगले ही क्षण उसके कदम किसी मज़बूत विश्वास से थम गए। त्यौरियां ऊपर को किये हुए ही उसने ऊपर छत पर देखा। अब धरा चुप ! क्या बोले?लड़का भी जादू-जड़ा सा उसे देखे जाये। देखे जाये।कोई जवाब न पाकर लड़का खड़ा-खड़ा भीत निहारता रहा फिर निचुड़े से मन से आगे बढ़ लिया। अम्मा की चोली की उधड़ी सिलाई गौंठती धरा के हाथ में सुई जैसे थिरकने-सी लगी। उसके कलेजे से चिपक सी गयी आवाज़ भी दूर-दूर होती गली में बिला गयी। धरा का आपा लौटा। उसे बेचारी अपनी माँ पर भी तरस सा आने लगा- दो रोटी पेट में जाती तो खून के दो कतरे बनते न बनते, जितना खून पश्चात्ताप में ठाकुरजी के आगे बड़बड़ाते-घिघियाते फुंक गया बुढ़िया का। अच्छा उपवास रखा। धरा ये सोच के उठी कि नुक्क्ड़ से अम्मा के लिए कोई फल-फूल ही लादे। भूखी काया, पहाड़ सा दिन, बुढ़ापे का शरीर।आले से बीस रूपये का नोट उठा कर धरा ने चप्पल पहनीं और धड़धड़ाती हुई सीढ़ियाँ उतर गयी।चौराहे से केले लेकर पलटी ही थी कि सामने विधाता जैसे उसका नसीब लिए खड़ा था। वही लड़का। सत्रह-अठारह की उम्र, साँवला रंग,माथे पर चमकते छितराते काले बाल। जैसी कच्ची सी खिली-खिली उसकी आवाज़ आती थी, वैसा ही गंदुमी उजास उसके मुंह पर भी छलका दिखा। लड़का मिलिट्री रंग की सीने से खुले बटन की कमीज में झुका हुआ माचिस से बीड़ी सुलगा रहा था। उसके बाल माथे पर इतना नीचे को झुक आये थे, कि उसने समीप से गुज़रती धरा को भी एकाएक नहीं देखा। धरा ने भी बीच-बाजार ठिठक कर रुकने का कोई जोखिम नहीं लिया, और जल्दी-जल्दी डग बढ़ाती चौबारे की ओर लौटने लगी। लड़के का चेहरा मानस पर कहीं छप गया धरा के।
गलियों में फेरी लगाता वह लड़का अक्सर आता। धरा की समझ में ये नहीं आता था कि ये लड़का उसका कौन है जो उसकी कच्चे दूध की सी छलकती आवाज़ कानों में पड़ते ही वह अपना सब काम-धाम छोड़ कर मुंडेर के पास दौड़ी चली आती है। ऊपर से नीचे झांकती और उसे गली में जाते हुए देखती रहती, तब तक, जब तक वो आँखों से ओझल न हो जाये। लेकिन एक अंजान पराये लड़के को वह कैसे, और क्योंकर रोके, यह समझ न पाती। एक ऐसा जवान लड़का, जिसकी आवाज़ उसके कानों में मंदिर के घंटे की तरह बजती है, जिसका गली में से होकर गुज़रना उसकी आँखों को ताज़े पानी की लहर-सा धोता है, वह कौन है, कहाँ रहता है,क्या करता है, ये सब जानने और उससे बात करने को धरा बेचैन हो उठी।फिर एक दिन धरा का भी अम्मा की तरह उपवास हो गया। उपवास रोटी का नहीं, बल्कि उस लड़के को न देख पाने का। आज वह नहीं आया। सोलह साल की धरा के कान गली में उस लड़के की आवाज़ की आहट सुनने को तरसते ही रह गए। आज जैसे दोपहरी ही नहीं हुई। जैसे किसी पोखर के किनारे कोई शरारती बच्चा शंख और सीपियाँ बीनने के लिए खोजी आँखों से घूमता है, धरा भी कच्चे दूध सी उस आवाज़ की आहटों को ऐसे ही बीनने को तरसती रह गयी। लेकिन वह नहीं आया। और तब धरा ने जाना कि उसके आने के क्या मानी हैं, उसी दिन धरा को ये भी पता चला कि उसके न आने के क्या मानी हैं। अगला दिन और मज़बूत हुआ। जब रोज़ की भांति लड़के के आने का समय हुआ तो धरा सारे काम आधे-अधूरे मन से करती मुंडेर पर नज़र जमाए रही। उसकी आवाज़ की गंध हवा में उड़ कर धरा के कानों पर किसी अदृश्य काग सी बैठ गयी थी।न जाने कैसी शरारत सूझी धरा को कि मुंडेर पर सुबह धोकर डाली अपनी चोली हौले से उसने छत से नीचे ठेल दी। सब ऐसे हुआ जैसे किसी पिटारी वाले का खेल हो। वह आया और उसने धरा की आँखों में अपने कल न आने का नक्शा छपा देखा। फिर देखी उसने सामने मिट्टी में गिरी चोली। फिर उसने नज़र घुमा कर आजू-बाजू के बंद किवाड़ देखे। फिर कंधे से उतार कर अपना बोरा एक ओर भीत से टिकाया। और संकरे दरवाजे से सीढ़ियां चढ़ कर छत पर आया। हाथ में थी चोली। धरा को मानो छत डोलती सी लगी। दम साध कर उधर देखा।-"ये ...ये तुम्हारी चोली।" उसने हाथ बढ़ा कर कहा।
धरा खिलखिला कर हंस पड़ी। लड़के ने बेहद संकोच से चोली धरा को पकड़ाई। धरा को ये देखना सुहा रहा था कि ज़मीन केवल उसकी ही डाँवाडोल नहीं हो रही है। -"तुम क्या लाते हो?" धरा ने पूछा।-"मैं ? .... मैं क्या लाऊँगा ....मैं तो लेने आता हूँ।" लड़के ने मुंडेर पर रखे अपने हाथ का इशारा नीचे पड़े अपने बोरे की ओर किया और बोला -"बेकार का सामान, टूटी-फूटी चीज़ें,पुराने जूते,कपड़े, कबाड़ ..."अब न तो लड़के को समझ में आया कि और किस बहाने छत पर खड़ा रहे, न धरा ही समझ पाई कि कैसे उसे रोके? लड़का पलटा, और धीमी चाल से सीढ़ियाँ उतरने लगा। भक्तन माँ ने चाय की टेर लगाई तो धरा जैसे नींद से जागी।अम्मा को चाय देने के बाद धरा में अजब सी फुर्ती दिखाई दी। अम्मा भी आश्चर्य से देखने लगी, क्यों लड़की कमर में फेंटा बांध कर मुस्तैद हो रही है। जब चाय पीकर अम्मा ने खाली गिलास ज़मीन पर रखा तो उनकी बूढ़ी आँखों की जिज्ञासा भी खाली हो चुकी थी। धरा ने पल्ला कमर में खोंस कर हाथ में झाड़ू उठा ली थी और धीरे से ये कहती हुई नीचे सीढ़ियां उतर गयी कि नीचे वाली कोठरी की सफाई करेगी।-"अरी ये आज इतने दिनों बाद ... वो भी तीसरे पहर को तुझे क्या सूझी? कल सुबह कर लेना।" अम्मा कहती ही रह गईं, धरा नीचे जा चुकी थी।कोठरी की सफाई, इस ख्याल से ही अम्मा का जी न जाने कैसा-कैसा हो आया। क्या-क्या तो नहीं घूम गया आँखों के सामने।आज से बीस बरस पहले इस पूरी बस्ती में ये नीचे वाली छोटी सी कोठरी ही तो थी अकेली, जब पहली बार भक्तन माँ यहाँ आई थी। कैसा शांत वीराना सा पड़ा था चारों ओर। ईंटों से जैसे तैसे खड़ी की गयी एक कुटिया, उसके किनारे फूस -टप्पर की छाँव से बनी छोटी सी रसोई,काँटों की बाढ़ लगा घास-पात से घिरा चौबारा और बस ! और ?और वो, .... धरा का बाप !भरे बदन का हंसमुख, मेहनती, ईमानदार आदमी। यहाँ से चार मील की दूरी पर था आखेटमहल का परकोटा, जहाँ काम पर लगा था वह। ये जगह उसे मालिकों की ओर से ही रहने को दी गयी थी। धरा के बाप के मन में ये जोत जलती रहती थी कि एक दिन इस जगह का दाम चुका कर इसका मालिकाना हक़ पाएंगे। हालाँकि मालिक ने कभी इस बात का इशारा तक न किया था कि ये जगह उनकी नहीं, बल्कि मालिक की है। पर एक दिन धरा के बाप को ये मिल्कियत पराई लगने लगी।
आखेट महल परकोटे से रोज़ इतनी दूर का पैदल आना-जाना आसान काम नहीं था। लेकिन फिर भी इतनी दूर की जगह जो मालिक ने उन्हें रहने के लिए दी थी, उसमें भी मालिक ने उन लोगों का ही सुभीता देखा था। दरअसल बस्ती से दूर के इस वीराने में एक पुराना छोटा देवरा था, जिस पर दीवारें और छत डलवा कर मालिक रावसाहब ने एक छोटा मंदिर बनवा दिया था। इस मंदिर की देख-रेख और साफ-सफ़ाई का काम धरा के पिता को मिला था। इसीलिये मंदिर के नज़दीक की ये जगह और ये छोटी सी कुटिया उन लोगों की हो गयी थी। बीस बरस पहले किसे पता था कि शहरों की बस्तियां गाँवों और जंगलों का खून पी-पीकर ऐसी पनपेंगी कि उन्हें निगल ही लेंगी। यही तो दुनिया का दस्तूर है। बच्चा जन्मते ही कोई नहीं कहता कि ये मर जाये। लेकिन ये सब चाहते हैं कि जल्दी से आँगन में खेले, जल्दी से बड़ा होकर पढ़ने जाये। जल्दी से धंधे -पानी से लगे। जल्दी से दुल्हन लाए। जल्दी से बाल-बच्चों वाला हो। फिर सब कहते हैं कि हम पोते-पड़पोते देखें। अब दादा-नाना बनते-बनते बचपन और जवानी तो टिकने नहीं, बुढ़ापा आएगा ही। फिर सब कहते हैं कि बुढ़ापे से तो मौत भली !इस तरह निकल जाते हैं बरसों-बरस। और इसीलिए शहर की इस बस्ती ने खेड़े को खाने में ले लिए बीस बरस। बाद में धरा का बाप जब जी-तोड़ मेहनत करके चार पैसे कमा लाया तो ऊपर की ये दो कोठरियां और पक्का चौबारा बने।धरा हुई। बिटिया को पलकों पे रखता था हरदम। इसीलिए तो कुछ सुन नहीं सका।जब नज़दीक के घर की एक बुढ़िया ने चार आदमियों के सामने कह दिया कि मालिक ने मंदिर और कुटिया धरा के बाप को नहीं बल्कि धरा की माँ को दिया है, तो हत्थे से ही उखड़ गया, बिफ़र पड़ा एकदम।जाकर बुढ़िया का गला ही दबोच डाला। वो तो कहो, बुढ़िया जान से नहीं गयी, केवल बेहोश होकर ही रह गयी वर्ना कौन कहता उस दिन से धरा की माँ को भक्तन? सब हत्यारे की जोरू ही कहते। सब 'भक्तन' इसीलिये तो कहते थे कि धरा का बाप तो जाता था परकोटे पर काम करने और धरा की माँ संभालती थी मंदिर का कामकाज। साफ-सफाई, सज-संवर, पूजा-अर्चना भक्तन के जिम्मे रहती। छोटी सी धरा भी जब-तब माँ का हाथ बंटाने मंदिर में साथ जाती। सवेरे चार बजे उठ कर पास के कुंए पर नहाना-धोना करना और फिर मंदिर की सीढ़ियों पर माथा टेक कर झाड़ -बुहार में जुट जाना। सुबह सवेरे नहा-धोकर जब इक्का-दुक्का लोग मंदिर में आना शुरू होते, तब तक धरा की माँ सारा काम निपटा कर वापस घर का रुख कर चुकी होती। दिन निकलते-निकलते धरा का बाप भी कुंए पर नहा-निपट कर कलेवा करने आ बैठता और बस, शुरू हो जाता दिन। लेकिन जिस दिन से पड़ौस की बुढ़िया ने वह बात कही, कि मंदिर और कुटिया आखेट महल के मालिक ने धरा के बाप को नहीं बल्कि धरा की मां को दी है, धरा के बापू को न जाने क्या हो गया।
उसके बाद से कभी किसी ने उसे हँसते-बोलते देखा ही नहीं। उसके शरीर पर भी जैसे कोई गाज़ गिरी, तन बदन सिमटने लगा। देखते-देखते चलते हुए हाथ पैरों ने दग़ाबाज़ी शुरू कर दी। शाम ढले जब काम पर से लौटता तो अपने को बेबस-निढाल पाता। मंदिर की ओर आँख उठा कर देख तक न पाता। ईश्वर को घेर कर खड़ी दीवारें उसे किसी पाप का खंडहर नज़र आतीं। भला ऐसे कितने दिन चलती है ज़िंदगी? अरे, कुदरत तो इंसान को पैदा करने के दिन से उससे भिड़ने लग जाती है , रोओ तो खाना मिले, चीखो तो दुलार। न कुछ मांगो तो कौन कुछ दे? धरा के बाप की जीवन-इच्छा कमज़ोर होती चली गयी। कुदरत ने भी मुंह सा फेर लिया। जब-तब बीमार पड़ा रहने लगा।वैद्य-डॉक्टरों के पास जो बूटियां-दवाएं हैं, सो सब ईमान की पुतलियाँ हैं। ईमानदारी से कहो कि जीना है,तो सिफत की तासीर है उनकी, नहीं तो जड़-तना-पत्ते और गोलियां हैं, खाये जाओ, खाये जाओ।धरा का बाप कमज़ोरी के चलते कई-कई दिन तक काम पर न जा पाता। भक्तन पर काम का बोझ बढ़ने लगा।रूपये पैसे की भी किल्लत रहने लगी। अब मंदिर का सारा प्रसाद उतनी उदारता से न बाँट पाती थी। उसी में से नन्ही धरा और बीमार पति का कलेवा भी निकालना पड़ता। इस तरह कभी श्रद्धा से प्रभु की तीमारदारी के लिए निकली हुई अबला एक व्यावसायिक पुजारन में तब्दील होने लगी।हाड़-मांस के असहाय पति और पत्थर के बेजान देवता की साज-सम्भाल व तीमारदारी ने थोड़े वक़्त में ही ज़्यादा उमरिया खर्च हो जाने की सी नौबत ला दी। धरा जल्दी बड़ी होने लगी तो भक्तन जल्दी बुढ़ाने लगी।धरा के बाप से न तो जोरू की हाड़-तोड़ मेहनत देखी जाती और न ही प्यारी बिटिया की बेबस आँखें। मगर मज़बूरी ने खटिया से चिपका ही छोड़ा।और एक दिन जब भक्तन ऊपर वाली कोठरी से उतर कर नहाना-धोना करके पति को प्रसाद देने इस नीचे वाले कमरे में पहुंची तो धरा के पिता को वहां से नदारद पाया।राम जाने कहाँ चला गया। लाख ढूंढा, न कोई खोज-खबर मिली और न कोई ठिकाना। शायद अपनी लाचारी के कहर से अपनी पत्नी और बिटिया को बचाने की गरज से सवेरे के नीम अँधेरे में अशक्त बूढ़ा सा दिखने वाला धरा का बाप कहीं मर-खपने चला गया।वह दिन था और आज का दिन, नीचे वाली कुटिया में न भक्तन ने कभी झांक कर देखा और न धरा ने। वहां ताला डाल दिया गया।उसे कभी किसी ने खोल कर न देखा। माँ-बेटी दोनों अपने को मानो इस भुलावे में रखे रहीं कि भीतर सोता होगा। आज दस बरस बीते, कहीं से कोई खोज-खबर नहीं मिली थी। आस-पास के सब गाँव छान मारे। कितने ही लड़कों और मर्दों की मदद लेकर शहर-भर में ढुँढवाया। पर वह तो ऐसा गया, मानो कभी था ही नहीं। कभी खोली न गयी उसकी कोठरी पिछले दस-बरस में कबाड़ की तरह हो गयी। हर चीज़ बहरी हवा-पानी से महरूम, उसी तरह काठ के किवाड़ों में बंद।
और अब , आज धरा चली थी झाड़ू लेकर उसी कोठरी की झाड़-बुहार करने। इतने बरस बाद। क्या था आज ? क्या हो गया धरा को ? माँ से पूछा तक नहीं ? बुढ़िया भक्तन बैठी-बैठी सोचती रह गयी।नियति का चक्र ऐसे ही चलता है। प्रकृति की रीत यही है। पौधा ऐसे ही उगता है। बड़े-बड़े पेड़ गिर जाते हैं, धराशायी हो जाते हैं। उनका कोई बीज-बट्टा पोली मिट्टी के गर्भ में गिर जाता है। फिर किसी भले मौसम में हवा-पानी का आशीर्वाद लेकर वह पनप भी जाता है। फिर से शुरू हो जाती है दुनिया।आज कैसा मौसम था क्या जाने? धरा के मन-आँगन में कौन से बीज की कोर गढ़ गयी कि खुश झूमती लड़की दस बरस पहले का दुःख भूल कर नए दिन लिखने की खातिर नीचे उतर गयी। बुढ़िया सोचती रही, सोचती रही।पूरे तीन घंटे लगे धरा को। दस बरस क्या कम होते हैं? घर-बार एक दिन न बुहारो तो गर्द का साम्राज्य हो जाता है। इतने सालों में तो वहां धूल की दुनिया ही बस गयी थी। एक सिरे से धरा ने हर चीज़ को उठा-उठा कर झाड़ा। दीवारों व छत की खूब सफाई की। लपेट कर रखा गया गूदड़ा सा बिस्तर झड़कार कर बाहर डाला। झिंगली सी खटिया उठा कर बाहर रखी। खूब भर-भर कर डोलची पानी डाला। रगड़-रगड़ कर एक-एक चीज़ की सफाई की। धूल -धक्कड़ और जालों के थक्के खुरच-खुरच कर बहाए। कोठरी के आलों में रखा सामान धूल-धूसरित होकर अपना रंग भी खो चुका था और दीन भी। धरा ने एक-एक चीज़ को देखा, और जो भी ज़रा काम की दिखाई दी उसे गीले कपड़े से पौंछ-पौंछ कर सहेजा। बाकी के सामान को एक बेकार के ढेर की शक्ल में कोठरी के एक कौने में जमा कर दिया। धरा ऊपर आई तो साँझ का झुटपुटा हो आया था। थक कर चूर भी हो गयी थी। बेदम सी बैठ गयी। माँ एकदम से उसके करीब आई और चुपचाप खड़ी होकर उसके बालों में हाथ फेरने लगी। दोनों में से कोई कुछ न बोला। दोनों का मौन एक-दूसरी को कुछ न कुछ याद दिलाता रहा। -"चल अब थोड़ा आराम कर ले।" अम्मा ने कहा। -"खाना भी तो बनाना है।" कहकर लापरवाही से धरा उठी और रसोई से साग काटने का चाकू तथा चार अरबी लेकर ज़मीन पर ही आ बैठी।-"ये आज तुझे क्या सूझा बेटी ? क्या बात है जो इस तरह सफाई में जुट गयी !" माँ आखिर बोल ही पड़ी।- "सफाई क्या कोई बुरी बात है?" धरा ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।-"बुरी बात तो नहीं है, पर आज बरसों बाद एकाएक तुझे ये ख्याल आया कैसे?"-"कभी तो आना ही था माँ" धरा ने अरबी छीलते-छीलते ही उत्तर दिया। पर भक्तन की समझ में ये पहेली आई नहीं, कुछ न कुछ बात तो ज़रूर थी जो बेटी ने इस तरह कमर कस कर इतना बड़ा काम आनन-फानन में कर डाला। माँ ने उड़ती सी निगाह उस पर डाल कर सब अनुमान-अंदाज़ खंगाल डाले।कौन सा दिन है आज? कहीं उनके जाने का दिन ही तो नहीं? नहीं, पर ये कैसे हो सकता है? वो तो गए थे उतरती सर्दियों की सुबह और अभी तो ठीक से ठण्ड का मौसम आया भी नहीं। अब भी जब-तब बूंदा-बांदी हो ही लेती थी।
धरा ने कुछ न कहा, पर तसल्ली भक्तन माँ को भी नहीं हुई। फिर भी इस बात पर से ध्यान हटा कर भक्तन अपनी संध्या-पूजा की तैयारियों में जुट गयी। एक लोटे में पानी लेकर वह पूजा के बर्तन धोने मोरी पर आ बैठी। आज केवल यही एक बात नहीं थी कि धरा ने पिछले दस बरस से बंद कोठरी खोल दी थी। बल्कि धरा में और भी बदलाव दिख रहे थे माँ को।इतने बरस बाद बिछड़े बाप की कोठरी बुहारने-झाड़ने में लाड़ली बिटिया थोड़ा बहुत तो दुःख-गम से बेज़ार होती, पर यहाँ तो बात ठीक इसके उलट थी। धरा उसे और दिनों के मुकाबले कहीं ज़्यादा प्रसन्नचित्त और हलकी-फुलकी दिखाई दे रही थी। ग़म -कष्ट का कहीं कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहा था। इतनी मेहनत करके भी उसकी स्फूर्ति बाकी थी। चेहरा भी तरोताज़ा दिख रहा था।चलो, कुछ भी हो, आखिर धरा उसकी बेटी ही थी, कोई गैर तो नहीं, किसी भी बहाने से खुश थी, यही क्या कम था। भक्तन को एक अजीब सी ख़ुशी का स्वाद आया और इस स्वाद में वो अपनी सारी उधेड़-बुन बिसरा कर संध्या-पूजा के लिए बैठ गयी। अगली सुबह तक तो भक्तन-माँ सारे प्रकरण को ही भूल-बिसरा कर बैठ जाती पर ये क्या, दोपहर होते न होते उसे धरा में और भी अप्रत्याशित परिवर्तन दिखाई देने लगे।धरा ने मुद्द्त बाद चोटी-कंघी भी बेहद इत्मीनान से की। उसकी सज-संवर भी आज माँ को पचने वाली नहीं थी।खाने से निबटने के बाद भक्तन लेटने को लेट भले ही गयी, पर उसके मन-पोखर पर कोई संशय कंकरियाँ गिरा -गिरा कर लहरें उठाता ही रहा।दोपहर हुई। बेहद सुहानी दोपहर। धरा के मन की मुराद सी दोपहर। वह आया। कच्चे कटहल के दूध सी चिपचिपी जवान आवाज़ के तार-सप्तक गली के छोर से ही उसके कानों में घंटियां बजाने लगे।और आज बिना किसी चोरी-चकारी के,बिना किसी उधेड़-बुन के, पूरे अधिकार के साथ धरा ने उसे पुकारा। -"ऐ , सुनो !"वह बिजली की सी गति से बोरा दीवार से टिका कर सीढ़ियों की ओर लपका। वह ऊपर आता, इसके पहले ही धरा किसी पारंगत नर्तकी सी थिरकती हुई सीढ़ियों से नीचे आने लगी। लड़का असमंजस से देखता हुआ नीचे ही खड़ा रह गया। -"आओ ज़रा मेरे साथ।" धरा आगे-आगे चलती हुई कोठरी की ओर बढ़ी। पीछे-पीछे लड़का सर झुकाए उसके साथ चल पड़ा। दालान पार करके लड़का कोठरी तक आकर ठिठक गया।धरा तीर की भांति कोठरी के भीतर दाखिल हो गयी। धरा के इशारे से उत्साहित होकर लड़का भी देहरी पर पैर रख कर भीतर झाँकने लगा। -"देखो, ये देखो, ये भी ..." धरा ने कौने में रखे हुए फालतू सामान के ढेर को अंगुली से दिखाते हुए कहा।